काठगढ़ महादेव ,
शिव और शक्ति के अद्र्धनारीश्वर स्वरूप की होती है पूजा!
हिमाचल प्रदेश, हमेशा से देव की प्रथम भूमि रही हैं। इसलिए इसे देवभूमि भी कहा जाता हैं। आस्था के रूप में यह भारत का स्र्वप्रथम केन्द्र रहा है। इस प्रदेश के काठगढ़ जिले के इंदौरा उपमंडल में काठगढ़ महादेव नामक बहुत भव्य मंदिर हैं। इसके गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग दो भागों में विभाजित है। एक भाग शिव एवं दूसरा भाग पार्वती का स्वरूप माना जाता हैं। यह अपने आप में एकलौता ऐसा मंदिर है। जहाँ दो भागों में बंटे हुए हैं अर्थात भगवान शिव और माता पार्वती के दो विभिन्न रूपों को ग्रहों और नक्षत्रों के परिवर्तित होने के अनुसार इनके दोनों भागों के मध्य का अंतर घटता-बढ़ता रहता है। ग्रीष्म ऋतृ में यह स्वरूप दो भागों में बंट जाता है और शीत ऋतृ में पुन: एक रूप धारण कर लेता हैं। यह चमत्कारिक दुश्य देखने योग्य है।
पौराणिक कथा-
शिवपुराण की विधेश्वर संहिता के अनुसार पद्म कल्प के प्रारंभ में एक बार ब्रह्मा और विष्णु के बीच में कौन किससे श्रेष्ठ है इस बात को लेकर तु तु मैं मैं से युद्ध तक बात आ पहुंची। जिसके बड़ी विध्वंश होने की आंशका पर भगवान शिव सहसा वहां आदि अनंत ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हो गए, जिससे दोनों देवताओं के दिव्यास्त्र स्वत: ही शांत हो गए। जिसके बाद आदि अनंत ज्योतिर्मय स्तंभ की अंतिम क्षोर जानने हेतू दोनों देव जुट गए। ब्रह्मा आकाश की ओर गए और विष्णु शुक्र का रूप धारण कर पाताल की ओर गए। किन्तु विष्णु अंत न पा सके। जिसके बाद ब्रह्मा अपने साथ केतकी का फूल लेकर लौटे और विष्णु को मिथ्या बोले की मैैंने इस स्तंभ का अंतिम क्षोर पा लिया है। और यह केतकी का फूल उस स्तंभ के उपरी भाग पर रखा हुआ था। ब्रह्मा का यह छल देखकर वहां शिव निंरकार से आकार रूप में प्रकट हो गए। उनके क्रोध को देखकर दोनों को अपनी भूल का अहसास हुआ। विष्णु ने शिव को शांत करने के लिए उनके चरणकमल को पकड़ लिया। जिसके बाद शिव ने दोनों को एक सामान श्रेष्ठ होने की बात कही।
बता दें कि यही अग्नि तुल्य स्तंभ, काठगढ़ महादेव के रूप में जाना जाने लगा। ईशान संहिता के अनुसार इस शिवलिंग का प्रादुर्भाव फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को हुआ था। चूंकि शिव का वह दिव्य लिंग शिवरात्रि को प्रकट हुआ था, इसलिए लोक मान्यता है कि काँगढ़ महादेव शिवलिंग के दो भाग भी चन्द्रमा की कलाओं के साथ करीब आते और दूर होते हैं। शिवरात्रि का दिन इनका ‘‘मिलन’’ का माना जाता है।
सिकंदर ने इस मंदिर के निर्माण में दिया था अपना योगदान-
विश्वविजेता सिकंदर ईसा से ३२६ वर्ष पूर्व जब पंजाब पहुंचा, तो प्रवेश से पूर्व मीरथल नामक गांव में पांच हजार सैनिकों को खुले मैदान में विश्राम करने का आदेश दिया। वहीं पर सिकंदर ने एक तरफ एक पुजारी को शिवलिंग की पूजा करते देखा। अपने पास बुलाने और अपने साथ यूनान चलने की बात कहीं और कहा वहां जाने के बाद उसे दुनिया का हर ऐश्वर्य देगा। इन सभी बातों को अनसूना करते हुए वह पूजारी अपनी पूजा में व्यस्त रहा। सिकंदर ने अपने ईष्ट के प्रति इतना आस्था को देख उस पूजारी से बहुत खुश हुआ। और उसी स्थान को मंदिर निर्माण करने हेतू पूरी जमीन को अपने सैनिकों के द्वारा पूरा समतल करवा दिया था। जिसके बाद चारदीवारी भी बनवाई। इस चारदीवारी के ब्यास नदी की ओर अष्टकोणीय चबूतरे बनवाए, जो आज भी वहां पर मौजूद है।
रणजीत सिंह ने इस मंदिर का किया था पुनरूद्धार-
जिस समय रणजीत सिंह ने अपनी गद्दी को संभाला तो उसने तय किया कि वह सारे धार्मिक स्थल का भ्रमण करेगा। उसी दौरान जब वह काठगढ़ को पहुंचा, तो इतना आनंदित हुए कि उन्होंने आदि शिवलिंग पर तुरंत सुंदर मंदिर का पुनरूद्धार करवाया और वहां पूजा करके आगे को निकल गया। वहीं मंदिर के पास ही बने एक कुएं का जल उसे इतना पसंद आया कि वह हर शुभकार्य करने के लिए उसी कुएं का जल मंगवाया करता था।
दो भागों में विभाजित अर्धनारीश्वर का रूप-
इस शिवलिंग की दूरी का अंतर ग्रहों एवं नक्षत्रों पर आधारित है। उनके अनुसार इसका दूरी का अंतर घटता और बढ़ता रहता है और शिवरात्रि को ही दोनों का ‘‘मिलन’’ हो जाता है। यह शिवलिंग अष्टकोणीय है तथा यह काले और भूरे रंग का है। शिव रूप में पूजे जाते शिवलिंग की ऊंचाई ७ से ८ फुट है जबकि माता पार्वती के रूप में अराध्य हिस्सा ५ से ६ फुट ऊंचा है।
श्रीराम के प्रिय भाई भरत की प्रिय रही थी यह पूजा-स्थली-
मान्यता है कि जब भी भरत को अपने ननिहाल कैकेय देश(कश्मीर) को जाना होता था तो रास्ते में पड़ रहे काठगढ़ महादेव मंदिर की बड़े ही विधि-विधान से पूजन-अर्चन किया करते थें।
लोगों की मान्यता-
वैसे तो हमेशा यहां पर भगवान शिव के दर्शन करने की लालसा मन में लिए भक्तों का तांता लगा रहता है। परन्तू शिवरात्रि के दौरान तीन दिवसीय लगने वाला भारी मेला में हर तरफ आस्था से रमा हुआ भक्तों का सिर ही दिखाई देता है। भक्तों का ऐसा मानना है कि उनके अर्धनारीश्वर के रूप का दर्शन करने मात्र से ही जीवन-मरण से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है और इस जन्म में सारे मानसिक और पारिवारिक दुखों का नाश हो जाता हैं।