हिन्दू धर्म में क्यों शवों को जलाने के बाद राख को जल में प्रवाह किया जाता है?
क्या शव की राख को अपने घर को लाने पर मृतक की आत्मा भी संग घर आ जाती है?
क्या मृत शरीर की राख में शरीर की आत्मा का कुछ संबंध रह जाता है?
क्या मृतक के शव की राख पर अघोरियों की बुरी नजर रहती है?
क्या उस राख से मृतक की आत्मा को अपने वश में कर लेते है?
अंतिम संस्कार, हिन्दुओं के प्रमुख संस्कारों में से एक है। संस्कार का तात्पर्य हिन्दुओं द्वारा जीवन के विभिन्न चरणों में किये जानेवाले धार्मिक कर्मकांड से है। अंतिम संस्कार हिन्दुओं के पृथ्वी पर बिताये गये जीवन का आखिरी संस्कार होता है। जिसे व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् मृतक के परिजनों द्वारा संपन्न किया जाता है। आम तौर पर हिन्दुओं को मरने के बाद अग्नि की चिता पर जलाया जाता है जिसमें शव को लकड़ी के ढेर पर रखकर पहले मृतात्मा को मुखाग्नि दी जाती है और तत्पश्चात् उसके शरीर को अग्नि को समर्पित किया जाता है। शवदाह के बाद मृतक की अस्थियां जमा की जाती है और उसे किसी जलस्त्रोत में, आमतौर पर गंगा या अन्य किसी पवित्र नदी में प्रवाहित की जाती है।
वह संबंधी जो अब इस दुनिया में नही रहा उसके जाने के बाद भी हमारा उसके साथ कहीं ना कहीं मोह बंधा रहता है। इसलिए कभी-कभी मन में आता है कि उनके जाने के बाद शायद उनकी जली हुई राख ही उनकी एक आखिरी निशानी है। अगर उसे भी हम नदी में बहा दें तो हमारे पास क्या बचता है? लेकिन रिवाज तो रिवाज है…जिसे हमें निभाना ही है। हमारी संस्कृति ही हमें शास्त्रीय बातों को जीवन में अमल करने का पाठ पढ़ाती है।
गंगा में मृतक की जली हुई शव की राख प्रवाह करने से लोक-परलोक से मिलती है मुक्ति-
लोक कथाओं के अनुसार एक ऐसी कहानी जो एक ऐसे व्यक्ति की है जो काफी निर्दयी था। वह अपने परिवार वालों के साथ अन्य कई लोगों को परेशान करता। उसके जीवन में शायद पुण्य नामावली का कोई अर्थ ही नहीं था। एक दिन जंगल में जाते समय उसका सामना एक शेर से हो गया, जहां वह शेर का शिकार बन गया। उसके मरने के तुरंत बाद ही यमराज के कुछ सेवक उसकी आत्मा को लेने वहां पहुंच गए और सीधे यमलोक ले गए। अब वहां कुछ बचा था तो उसका मृत शरीर जिसे काफी हद तक तो शेर ही खा गया लेकिन बचा हुआ कुछ हिस्सा अन्य छोटे जानवरों का भोजन बना। इसी बीच कुछ उड़ने वाले जीव भी भोजन की तलाश में उस मृत शरीर के पास पहुंंचे। अचानक एक जीव हड्डी के एक टुकड़े को अन्य जीवों से छिपाता हुआ आकाश में उड़ गया। लेकिन उसके ठीक पीछे दूसरा जीव भागा और दोनों मे उस हड्डी के एक टुकड़े को हासिल करने का संघर्ष होने लगा। इसी बीच यमलोक का दृश्य कुछ और ही था। वहां यमराज के सेवक चित्रगुप्त द्वारा उस व्यक्ति के पापों का हिसाब लगाया जा रहा था। चित्रगुप्त एक-एक करके यमराज को व्यक्ति के पापों का ब्योरा दे रहे थे। जिसके आधार पर उसे विभिन्न नर्क हासिल होने की आशंका जताई जा रही थी। तभी अचानक धरती लोक पर जहां उस व्यक्ति के मृत शरीर की हड्डी के लिए वह दो जीव लड़ रहे थे। अचानक उनके मुंह से वह हड्डी गिर गई और सीधा गंगा नदी में जाकर गिरी। गंगा नदी में हड्डी के पवित्र होते ही उस इंसान के सारे पाप धुल गए।
वैसे केवल कहानी ही नहीं, साथ ही हिन्दू धर्म के कुछ महान ग्रंथों में भी अस्थि विसर्जन के आख्यान पाए गए हैं। शंख स्मृति एवं कर्म पुराण में गंगा नदी में ही क्यों अस्थि विसर्जन करना शुभ है, इसके तथ्य पाए गए हैं। इस नदी की पवित्रता को दर्शाते हुए ही वर्षोंं से अस्थियों को इसमें विसर्जित करने की महत्ता बनी हुई है। हिन्दू धर्म के अलावा सिख धर्म में भी अस्थि विसर्जन किया जाता है।
इंसान की अस्थिया एवं नदी को वैज्ञानिक रूप से भी जोड़कर देखा जाता हैं। कहते हैं कि नदी मे प्रवाहित मनुष्य की अस्थियां समय-समय पर अपना आकार बदलती रहती हैं जो कहीं ना कहीं उस नदी से जुड़े स्थान को उपजाऊ बनाती हैं।
जिस भी धरातल को नदी का पानी छूता है वह स्थान उपजाऊ बन जाता है। इसका यह अर्थ है कि मरने के बाद भी इंसान की अस्थियां प्रकृति को एक नया जीवन देने के लिए लाभकारी सिद्ध होती हैं।
अघोरी और शमशान की राख का अनौखा रिश्त-
अघोरी देखने में जितने डरावने होते हैं, उनके काम उससे भी डरावने। उनका रहना, खाना-पीना आम इंसानों से बिलकुल अलग होता है। श्मशान अघोरियों का प्रिय स्थान है और यहां जलते शव इनका प्रिय भोजन। अघोरी कभी भी किसी से कुछ नहीं मांगते। बस वह अपने साधना में ही मग्न रहते हैं। वे शमशान घाट में तीन तरह से साधना करते हैं। पहला शमशान साधना, दूसरी शव साधना और तीसरी शिव साधना।
शमशान में की जाने वाली शव साधना अघोरियों के लिए सबसे कठिन
और खतरनाक साधना मानी जाती है। इस साधना को पूरी करने के लिए अघोरी किशोरी या फिर बच्ची की डेड बॉडी रखते हैं। साधना के दौरान अघोरी शव पर ही बैठकर मंत्र पढ़ते है। क्यों की उनका ऐसा मानना है कि जब भगवान शिव स्वयं मृत शरीर पर बैठें हैं और अघोरी के तौर पर साधना कर रहे हैं? तो हम क्यों नहीं।? शव जलने के बाद भी शरीर की राख में एक खास गुण रह जाता है। जिसके कारण किसी अघोरी के हाथ में लगे मृत्य शरीर का राख से उस मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को बुला लेते है एवं उसके माध्यम से अपने तय किये गये कार्य जबरन करवाते है। जिससे की उस मरने वाले की आत्मा पिड़ीत होती है। और वहीं तंत्र-मंत्र से जुड़े लोग मृतक के शव की राख का भी इस्तेमाल करना चाहते हैं। वे वैसे तांत्रिक होते हैं, जिनका झुकाव अध्यात्म की ओर होता है। वे अपने लिए साधना करना चाहते हैं। तंत्र विज्ञान वाले जादू-टोना करना चाहते हैं, इसलिए वे उस प्राणी को वश में कर उसका दुरूपयोग करने के लिए उसकी राख ले लेते हैं।
वैज्ञानिक गुण-
शरीर की राख में एक खास गुण होता है। मृत्य शरीर के जलने के बाद उसके राख में उसके शरीर के कुछ गुण मौजूद रह जाते है। वैज्ञानिक तथ्य के अनुसार अगर आप के पास किसी मृत्य शरीर का पहले से डीएनए हो और उसका राख तो फॉरेंसिक लैब के माध्यम से आप उस डीएनए से उस आदमी की पहचान कर सकते हैं। क्योंकि उस राख में शरीर का कुछ डीएनए मौजूद रह जाता है। जो कि शव जलने के बाद भी नही जलता। अगर ऐसी राख को मोह वश घर मे रखते है तो उस राख की आत्मा की न तो मोक्ष हो पाती है और न तो उस स्थान को छोड़ पाती है जहां पर उस राख को रखा गया है। और वह उस राख के आसपास ही मंडराता रह जाता है।
वहीं दूसरी तरफ अगर हम विभूति लगाते हैं, उसका एक पहलू यह है कि जब आप उसे शरीर के एक खास हिस्से पर लगाते हैं,तो यह आपके भीतर एक संतुलन लाती है, क्योंकि विभूति का काम समता लाना है। खास किस्म की साधना करने वाले लोग या वे लोग जो विभूति का प्रयोग बेहद तीव्र तरीके से करना चाहते हैं, हमेशा श्मशान से ही राख लेते हैं।