तुला दान का महत्व, करने से मिलता हैं विष्णु लोक में स्थान!
शास्त्रों में हर समस्या के हल के लिए तुला दान को सर्वप्रथम एवं अचूक उपाय बताया गया हैं। तुला का शाब्दिक अर्थ है-‘‘तराजू’’ और दान का शाब्दिक अर्थ है- ‘‘देने की क्रिया’’। सभी धर्मों में सुपात्र को दान देना परम् कर्तव्य माना गया है। हिन्दू धर्मं में दान की बहुत महिमा बतायी गयी हैं। आधुनिक संदर्भों में दान का अर्थ किसी जरूरतमन्द को सहायता के रूप में कुछ देना है। इसका विधान इस प्रकार है कि हवन के बाद ब्राह्मण पौराणिक मंत्रों का उच्चारण करते हैं, वे लोकपालों का आवास करते हैं, दान करने वाला तुला(तराजू) के रूप में वह विष्णु का स्मरण करता है, फिर वह तुला की परिक्रमा करके तराजू की एक पलड़े पर चढ़ जाता हैं। जिसके दूसरे तरफ अपने वजन के बराबर सोने का आभूषण-कंगन, सोने की सिकड़ी वगैरह रख करके पृथ्वी का आह्वान किया जाता है। दान देने वाला तराजू के पलड़े से उतर जाता है, फिर सोने का आधा भाग गुरू को और दूसरा भाग ब्राह्मण को उनके हाथ में जल गिराते हुए देता है। एक बात का विशेष ध्यान दें कि उसी ब्राह्मण को दान देना चाहिए जिसके पास दान किये वस्तु न हो। ऐसे ब्राह्मण को इस विधि के लिए न चूने जो करोड़पति हो। इससे क्या भला होने वाला है। कहा जाता है कि भूखे को भोजन कराओं तो आर्शीवाद मिलता है। अगर किसी का पेट भरा हुआ हो तो ऐसे को भोजन कराने का फल विफल हो जाता हैं।
बता दें कि सोने का दान अब दुर्लभ हो चुका हैं, सिर्फ धर्मशास्त्र में इसका वर्णन पढ़ने को मिलता है। राजाओं के साथ मंत्री भी यह दान किया करते थे। इसके साथ ग्राम दान भी किया जाता था। इस दान से दान देने वाले को विष्णु लोक में स्थान मिलने की बात कहीं गई है। आजकल तुला-दान में सोना इस्तेमाल नहीं किया जाता। दानकर्ता के वजन के बराबर अनाज या दूसरी चीजें दान की जाती हैं। प्रतिकूल ग्रहदशाओं में या सभी प्रकार की खुशहाली के लिए यह दान किया जाता है।
तुला दान करने के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान-
पौराणिक आख्यान के अनुसार प्रयाग की पवित्र धरती पर प्रजापति ब्रह्मा ने सभी तीर्थों को तौला था। शेष भगवान के कहने से तीर्थों को तौलने का इन्तजाम किया गया था, इसका उद्देश्य तीर्थों की पुण्य गरिमा का पता लगाना था। ब्रह्मा ने तराजू के एक पलड़े पर सभी तीर्थ, सातों सागर और सारी धरती रख दी। दूसरे पलड़े पर उन्होंने प्रयाग को रख दिया। अन्य तीर्थों का पलड़ा हल्का होकर आकाश में धु्रव मण्डल को छूने लगा, लेकिन प्रयाग का पलड़ा धरती को छूता रहा। ब्रह्मा की इस परीक्षा से हमेशा के लिए तय हो गया कि प्रयाग ही तीर्थों का राजा अर्थात तीर्थराज प्रयाग हैं। इनकी पुण्य गरिमा का मुकाबला सातों पुरिंया और सभी तीर्थ नहीं कर सकते। इसीलिए अनेक श्रद्धालु तीर्थराज प्रयाग में आकर अपनी सामध्र्य के अनुसार तुलादान करते हैं। इससे उनके जन्म जन्मांतर में अर्जित पाप नष्ट हो जाते हैं और उनके परिवार में सुख-समृद्धि आती हैं।
उज्जैन का महत्व भी तुलादान के लिए सर्वश्रेष्ठ-
उज्जैन, महाकाल की नगरी है एवं देवों की पावन भूमि माना गया हैं। जिससे इसका महत्व सौ गुना बड़ जाता हैं। ऐसा माना जाता है कि उज्जैन में जब-जब महाकुम्भ का आयौजन होता है तो सारे देवता स्वयं इसमें शामिल होने हेतू आते हैं। ऐसे इस नगरी में तुला दान करने से भी जातक को सौ गुना फल की प्राप्ति होती है।
मकर संक्रांति पर तुला दान करने से फल सौ गुना मिलता है-
मकर संक्रांति, जब सूर्य एक राशि से दूसरे राशि में प्रवेश करता है तो इस घटना को संक्रांति कहा जाता है। और अगर सूर्य अपने ही पुत्र शनि के राशि मकर में प्रवेश करता है तो इसे मकर संक्रांति कहा जाता हैं। इस मकर संक्रांति पर्व से ऋतुओं का परिवर्तन होता है। सूर्य उत्तरायण दिशा में हो जाते हैं। इस तिथि से देवों का सूर्योदय और दैत्यों का सूर्यास्त हो जाता है। सूर्य का उत्तरायण देवताओं के लिए दिन अर्थात सकारात्मक माना जाता है। ऐसे में पवित्र नदियों में स्नान के बाद किया जाने वाला यह तुलादान, ग्रह शांत करता है, बाधाएं शांत होती हैं। साथ ही उसे मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। इस अवधि को विशेष शुभ माना गया है। ऐसी भी मान्यता है कि इस मौके पर किए गए दान का फल सौ गुना होता हैं। शास्त्रों के अनुसार तुलादान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस लिए मकर संक्रांंति पर लोग अपने भार के बराबर अनाज दान कर इस तुला दान की विधि को पूर्ण करते हैं।