श्राद्ध पक्ष में महिलाएं भी कर सकती है श्राद्ध पूजन
गणेश चतुर्थी के बाद पितर पक्ष शुरू हो जाता हैं। अपने बुजुर्गों और पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए इस दिन में उनके श्राद्ध की पूजा की जाती हैं। हिन्दू धर्म में कई सदियों से यही मान्यता चली आ रही हैं कि अपने पितरों का श्राद्ध पूजन घर का मर्द ही करता हैं लेकिन यह मान्यता हर परिस्थिति में लागु नही होती हैं। कुल में पति या पिता या कोई पुरूष सदस्य न हो। या ऐसा पुरूष जो श्राद्ध कर्म करने कि स्थिति में न हो अर्थात् वह गंभीर रूप से अस्वस्थ हो, विदेश में हो, उसकी मानसिक स्थिति सही न हो या कुपात्र हो।
श्राद्ध करने का नियम-
हिन्दू धर्म ग्रंथ, धर्म सिंधु सहित मनुस्मृति और गरूड़ पुराण भी महिलाओं को पिंड दान आदि करने का अधिकार प्रदान करती हैं। इसमें बताया गया है कि महिलाएं श्राद्ध कर सकती हैं, मगर वे कुश और जल के साथ तर्पण नहीं कर सकती। काले तिलों से तर्पण करने का उनको अधिकार प्राप्त नहीं है, क्योंकि महिला को उत्पन्ना माना गया है। वह तर्पण प्रतीक नहीं है। श्राद्ध में कुमारी लड़कियों को वर्जित माना गया है। लेकिन विवाहित महिलाएं श्राद्ध कर सकती हैं। पति या पुत्र बीमार है, तो उसके हाथ स्पर्श कराकर महिला श्राद्ध कर्म कर सकती है।
किसी भी मृतक के अन्तिम संस्कार और श्राद्धकर्म की व्यवस्था के लिए प्राचीन वैदिर ग्रन्थ गरूड़ पुराण में पुत्र या पुरूष सदस्य के अभाव में कौन-कौन से सदस्य श्राद्ध कर सकते है, उसका उल्लेख अध्याय ११ के श्लोक संख्या ११,१२,१३ और १४ में विस्तार से किया गया है जैसे:
पुत्राभावे वधु कूर्यात..भार्याभावे च सोदन:!
शिष्यो वा ब्राह्मण:सपिण्डो वा समाचरेत!!
ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भातृ:पुत्रश्च: पौत्रके!
श्राध्यामात्रदिकम कार्य पुत्रहीनेत खग:!!
अथार्त ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू, पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है। अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई अथवा भतीजा, भानजा, नाती, पोता आदि कोई भी श्राद्ध कर सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुलपुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है।
इस प्रकार परिवार के पुरूष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्धतर्पण और तिलांजलि देकर मोक्ष कामना कर सकती है।
रामायण काल में सीता ने किया था राजा दशरथ का पिण्डदान-
वाल्मिकी रामायण में भी सीता द्वारा पिण्डदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। पौराणिक कथा के अनुसार वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुंचे। वहां श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई थी। पिण्डदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी। अपराह्न में तभी दशरथ की आत्मा ने पिण्डदान की मांग कर दी। गया जी के आगे फल्गू नदी पर अकेली सीता जी असमंजस में पड़ गई। उन्होंने फल्गू नदी के साथ वटवृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिण्डा बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिण्डदान दे दिया।
थोड़ी देर में भगवान राम और लक्ष्मण लौटे तो सीता जी ने कहा कि समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिण्डदान कर दिया। बिना सामग्री के पिण्डदान कैसे हो सकता है। इसके लिए राम ने सीता से प्रमाण मांगा। तब सीता जी ने कहा कि यह फल्गू नदी की रेत, केतकी के फूल, गाय और वटवृक्ष मेरे द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते है। इतने में फल्गू नदी, गाय और केतकी के फूल तीनों इस बाद से मुकर गए। सिर्फ वटवृक्ष ने सही बात कही। तब सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की। दशरथ जी ने सीता जी की प्रार्थना स्वीकार कर घोषणा की कि सीता ने ही मुझे पिण्डदान दिया। इस पर राम आश्वस्त हुए लेकिन तीनों गवाहों द्वारा असत्य बोलने पर सीता जी ने उनको क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी जा तू सिर्फ नाम की नदी रहेगी। तुझमे पानी नहीं रहेगा। इस कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी रहती है। गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों जूठन खाएगी। केतकी के फूल को श्राप दिया कि तुझे पूजा में कभी नहीं चढ़ाया जाएगा। वटवृक्ष को सीता जी का आर्शीवाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री तेरा स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेगी। यह कारण है कि गाय को आज भी जूठनखाना पड़ता है। केतकी के फूल को पूजा में वर्जित रखा गया है और फाल्गू नदी के तट पर सीताकुण्ड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत से पिण्डदान दिया जाता है।