जूना सोमवारिया या केडी गेट से शिप्रा नदी के बड़े पुल के पहले चक्रतीर्थ के लिए घाटी वाले मार्ग को छोड़कर बाईं ओर घाटी चढ़कर ठीक सामने ही इंद्रेश्वर महादेव मंदिर स्थित है। यह मंदिर अपनी प्राचीनता लिए हुए हैं। गर्भगृह में जलाधारी जो लगभग 30 इंच चौड़ी है, काले पत्थर से बनी है जिसके मध्य में इंद्रेश्वर लिंग प्रतिष्ठित है।
समीप ही ढाई फीट ऊंचा त्रिशूल गड़ा है। शिवलिंग पर नाग आवेष्ठित है तथा समीप ही 2.6 फीट ऊंचा त्रिशूल गड़ा है। जलाधारी उत्तर की ओर है। गर्भगृह में प्रवेश करते बाईं ओर एक अति प्राचीन फर्श से थोड़ा ऊपर प्राचीन प्रतिमा स्थापित है जो विष्णु जैसी लगती है, मध्य में गणेश व दायें कार्तिकेय की मूर्ति स्थित है। सामने पीपल का बड़ा वृक्ष है।
लिंग माहात्म्य की कथा-
एक बार प्रजापति त्वष्टा के पुत्र कुशध्वज को निहत कर दिया, तब त्वष्टा ने क्रोध में अपनी जटा उखाड़ी तथा उसे अग्नि में होम कर दिया जिससे महाकाय अंजनवर्ण वृत्रासुर उत्पन्न हुआ। इंद्र का शत्रु होने से उसने उसके साथ घोर युद्ध उत्पन्न कर दिया। योद्धाओं के मुण्डों से धरती रक्तरंजित हो गई।
वृत्रासुर ने इंद्र को बंदी बनाकर स्वर्ग पर राज्य स्थापित कर लिया। तब बृहस्पति ने इंद्र को जंजीरों से बंधनमुक्त किया तथा कहा कि यह तुम्हारा मन्दभाग्य वाला काल है तथा दैत्यों का सुमहान् उद्योगकाल। इंद्र ने इसका प्रतिकार पूछा तो बृहस्पति ने उसे महाकाल वन जाकर सर्वसंपत्ति प्रदायके लिंग की आराधना करने को कहा। तब इंद्र ने भक्तिपूर्वक उस लिंग की स्तुति की। उसे शंकर ने वृत्र के विनाश का वर दिया। तब इंद्र ने समुद्र जल के फेन से उस दैत्यासुर का संहार कर दिया। इस प्रकार इस लिंग का नाम इंद्रेश्वर कहलाया।
फलश्रुति
इसके दर्शन मात्र से मुनष्य को इंद्र की शोभना पुरी की प्राप्ति तथा नित्य दर्शन से वह स्वर्ग में आमोदित होकर चार कल्प तक श्रेष्ठ लोकों में निवास करता है। इसकी अर्चना से विष्णु आदि, इंद्र आदि देवता, मुनिगण तथा लोकपालगण स्वयमेव पूजित हो जाते हैं।
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