Janiye Rishi-Muniyo ke Lambe Samay tak Jiwan ke Raaj?

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 कैसे लंबी आयु होती थी ऋषि-मुनियों की? क्या खान-पान थे उनके? क्या हम भी उनकी तरह लंबे समय तक स्वस्थ एवं जीवीत रह सकते है?

Rishi-Muni

आइये जानते हैं

जैसा की हमारे प्राचीन ग्रंथों में उल्लेखित है कि हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि काफी लंबे समय तक स्वस्थ्य और जवान रहते थे। उनके लंबे समय तक सेहतमंद रहने के कई कारण थे जिसमें से एक उनका भोजन था। आइए जानते है हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों का भोजन क्या था।

कंद- ऋषि-मुनि जमीन के नीचे उगने वाले कंद खाते थे। इनसे एनर्जी मिलती थी। वहीं दूसरी तरफ ज्यादा कैलोरी और फैट से बचाव होता था।

मूल-  वे मूल यानि कई तरह की जड़ों का उपयोग खाने के लिए करते थे। इनसे बॉडी को जरूरी न्यूट्रिएंट्स मिलते थे और बीमारियों से बचाव होता था।

फल-  वे ताजे फल खाते थे। ताजे फलों से बॉडी को एनर्जी और न्यूट्रिएंट्स के अलावा फाइबर्स भी मिलते थे।

आंवला-  ये ऋषि-मुनियों की डाइट में फूड और मेडिसिन दोनों के रूप में शामिल था। इससे उनकीं स्किन हेल्दी रहती थी। बाल लंबे समय तक काले रहते थे।

शहद-  वे जंगल में रहते थे और वहां पर असानी से प्राप्त हो जाता था शहद, उनकी डाइट का अहम हिस्सा था। एंटीबायोटिक और एंटीबैक्टीरियल के रूप में शहद बीमारियों से बचाव करता था।

दूध-  ऋषि-मुनि अपने आश्रम में गाया पालते थे और उसका दूध पीते थे। इससे उनकी हड्डियां मजबूत रहती थी। बीमारियों से बचाव होता था।

घी-  देशी गाय का घी, ऋषि-मुनियों की डाइट का जरूरी हिस्सा था। इससे उन्हें जरूरी फैट और एनर्जी मिलती थी। स्किन ग्लोइंग रहती थी।

दही-  उनके दिन के खाने में दही जरूर शामिल होता था। इससे डाइजेशन अच्छा होता था और पेट की बीमारियों से बचाव होता था।

सब्जियां-  ऋषि-मुनि की डाइट का अधिकांश भाग हरी पत्तेदार चीजों का होता था। इससे उन्हें जरूरी विटामिन्स और मिनरल्स के साथ फाइबर्स भी मिलते थे।

साबुत अनाज-  वे पका हुआ खाना कम खाते थे लेकिन साबुत अनाज उसमें शामिल था। इसमें मौजूद न्यूट्रिएंट्स से हार्ट हेल्दी रहता था। कई बीमारियों से बचाव होता था।

नाद योग-

Mantraवहीं नाद योग की ऋषि-मुनियों के हमेशा स्वस्थ रहने में एक अहम भूमिका रही है। इसमें चक्र जागरण के लिए योग सबसे आसान माध्यम है। कुंडलिनी के सात चक्रों में से पांचवां चक्र यानी विशुद्धि चक्र शुद्धिकरण का केंद्र है। इसका संबंध जीवन चेतना के शुद्धिकरण व संतुलन से है। योगियों ने इसे अमृत और विष के केंद्र के रूप में भी परिभाषित किया है। विशुद्धि चक्र की साधना से एक ऐसी स्थिति प्रकट होती है, जिससे जीवन में अनेकों विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियां आती हैं। इससे साधक के ज्ञान में वृद्धि होती है। जीवन कष्टप्रद न रहकर आनंद से भरपूर हो जाता है।

कहां होता है ये चक्र- यह चक्र गे्रव जालिका में गले के ठीक पीछे स्थित है। इसका क्षेत्र गले के सामने या थॉयराइड ग्रंथि पर है। शारीरिक स्तर पर विशुद्धि का संबंध ग्रसनी व स्वर यंत्र तंत्रिका जालकों से है। योगशास्त्रों में इसे प्रतीकात्मक रूप से गहरे भूरे रंग के कमल की तरह बताया गया है। मगर कुछ साधकों ने इसका अनुभव १६ पंखुड़ियों वाले बैंगनी रंग के कमल की तरह किया है। ये १६ पंखुड़ियां इस केंद्र से जुड़ी नाड़ियों से संबंधित हैं। हर पंखुड़ी पर संस्कृत का एक अक्षर चमकदार सिंदूरी रंग से लिखा है-अं,आं,इं,इ,उं,ऊं,ऋं,ऋं,ऌं,ऌ,एं,ऐं,ओं,औं,अं,अ:। यह आकाश तत्व का प्रतीक है। विशृद्धि चक्र के उस साधक के लिए जिसकी इन्द्रियां निर्दोष व नियंत्रित है।

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