दस महाविद्या
की उत्पति की संपूर्ण कथा
शास्त्रों के अनुसार इन दस महाविद्या में से किसी एक की नित्य पूजा अर्चना करने से लंबे समय से चली आ रही बीमार, भूत-प्रेत, अकारण ही मानहानी, बुरी घटनाएं, गृहकलह, शनि का बुरा प्रभाव, बेरोजगारी, तनाव आदि सभी तरह के संकट तत्काल ही समाप्त हो जाते हैं और व्यक्ति परम सुख और शांति पाता है। इन माताओं की साधना कल्प वृक्ष के समान शीघ्र फलदायक और सभी कामनाओं को पूर्ण करने में सहायक मानी गई है।
उत्पत्ति कथा- श्री देवीभागवत पुराण अनुसार सती के पिता दक्ष प्रजापति दोनों के विवाह से खुश नहीं थे। उन्होंने शिव का अपमान करने के उद्देश्य से एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। जिसमें उन्होंने सभी देवी-देवताओं को आमन्त्रित किया लेकिन द्वेषवश उन्होंने अपने जामाता भगवान शंकर और अपनी पुत्री सती को निमन्त्रित नहीं किया। सती, पिता के द्वारा आयोजित यज्ञ में जाने की जिद करने लगीं जिसे शिव ने अनसुना कर दिया, इस पर सती ने स्वयं को एक भयानक रूप में परिवर्तित (महाकाली का अवतार) कर लिया। जिसे देख भगवान शिव भागने को उद्यत हुए। अपने पति को डरा हुआ जानकर माता सती उन्हें रोकने लगीं तो शिव नहीं रूके, एवं जिस दिशा में शिव गये उस दिशा में माँ का एक अन्य विग्रह प्रकट होकर उन्हें रोकता है। इस प्रकार दसों दिशाओं में भागते शिव को रोकने हेतू माँ ने वे दस रूप लिए थे वे ही दस महाविद्याएँ कहलार्इं। सती के दस रूपों को देख शिव ने इन सभी का परिचय पूछा। सती ने बताया, ये मेरे ही दस रूप है। आपके सामने खड़ी कृष्ण रंग की काली हैं, आपके ऊपर नीले रंग की तारा हैं।पश्चिम में छिन्नमस्ता, बाएं भुवनेश्वरी, पीछे बगलामुखी, पूर्व-दक्षिण में धूमावती, दक्षिण-पश्चिम में त्रिपुरा सुंदरी, पश्चिम-उत्तर में मांतगी तथा उत्तर-पूर्व में षोडशी हैं और में खुद भैरवी रूप में अभयदान देने के लिए आपके सामने खड़ी हूं। यही दस महाविद्या अर्थात् दस शक्ति है। इस प्रकार देवी दस रूपों में विभाजित हो गयीं जिनसे वह शिव के विरोध को हराकर यज्ञ में भाग लेने गयीं। बाद में माँ ने अपनी इन्हीं शक्तियों का उपयोग दैत्यों और राक्षसों का वध करने के लिए किया था।
प्रवृति के अनुसार दस महाविद्या के तीन समूह हैं। पहला: -सौम्य कोटि (त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, मांतगी, कमला), दूसरा: – उग्र कोटि(काली, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी), तीसरा: – सौम्य-उग्र कोटि(तारा और त्रिपुर भैरवी)।
1- काली:
दस महाविद्याओं में यह प्रथम है। कलियुग में इनकी पूजा अर्चना से शीघ्र फल मिलता है
2-बगलामुखी:
शत्रु बाधा को पूर्णतः समाप्त करने के लिये बहुत महत्वपूर्ण साधना है। इस विद्या के द्वारा दैवी प्रकोप की शांति, धन-धान्य प्राप्ति, भोग और मोक्ष दोनों की सिद्धि होती है। इसके तीन प्रमुख उपासक ब्रह्मा, विष्णु व भगवान परशुराम रहे हैं। परशुराम जी ने यह विद्या द्रोणाचार्य जी को दी थी और देवराज इंद्र के वज्र को इसी बगला विद्या के द्वारा निष्प्रभावी कर दिया था। युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण के परामर्श पर कौरवों पर विजय प्राप्त करने के लिये बगलामुखी देवी की ही आराधना की थी। मां बगलामुखी के प्रसिद्ध शक्ति पीठ निम्न स्थानों पर हैं। दतिया: यहां मां बगलामुखी का ऐतिहासिक मंदिर है। यह पीतांबरा शक्ति पीठ के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा अमर होने के कारण आज भी इस मंदिर में पूजा-अर्चना करने आते हैं। वाराणसी: यहां भी मां बगलामुखी का शक्तिपीठ है। वनखंड़ी: यह शक्ति पीठ जिला कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) में है। कोटला: यहां भी मां बगलामुखी का शक्ति पीठ है। यह पठानकोट से 5 किलोमीटर दूर कांगड़ा मार्ग पर है। इस मंदिर की स्थापना 1810 में हुई थी। गंगरेट: यह भी हिमाचल प्रदेश के जिला ऊना में है। हर वर्ष यहां बहुत भारी मेला लगता है। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र (मुंबई) में भी इनके प्रसिद्ध उपासना स्थल हैं।
3-छिन्नमस्ता:
मां छिन्नमस्ता का स्वरूप गोपनीय है। इनका सर कटा हुआ है। इनके बंध से रक्त की तीन धारायें निकल रही है। जिस में से दो धारायें उनकी सहस्तरीयां और एक धारा स्वयं देवी पान कर रही है। चतुर्थ, संध्या काल में छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती की सिद्धि हो जाती है। राहु इस महाविद्या का अधिष्ठाता ग्रह है।
4-भुवनेश्वरी:
महाविद्याओं में भुवनेश्वरी महाविद्या को आद्या शक्ति कहा गया है। मां भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य और अंग कांतिमय है। मां भुवनेश्वरी की साधना से मुख्य रूप से वशीकरण, वाक सिद्धि, सुख, लाभ एवं शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। पृथ्वी पर जितने भी जीव हैं सब को इनकी कृपा से अन्न प्राप्त होता है। इसलिये इनके हाथ में शाक और फल-फूल के कारण इन्हें मां ‘शाकंभरी’ नाम से भी जाना जाता है। चंद्रमा इनका अधिष्ठातृ ग्रह है।
5-मातंगी:
इस नौवीं महा विद्या की साधना से सुखी, गृहस्थ जीवन, आकर्षक और ओजपूर्ण वाणी तथा गुणवान पति या पत्नी की प्राप्ति होती है। इनकी साधना वाम मार्गी साधकों में अधिक प्रचलित है।
6-षोडशी महाविद्या:
शक्ति की सब से मनोहर सिद्ध देवी है। इन के ललिता, राज-राजेश्वरी महात्रिपुर सुंदरी आदि अनेक नाम हैं। षोडशी साधना को राजराजेश्वरी इस लिये भी कहा जाता है क्योंकि यह अपनी कृपा से साधारण व्यक्ति को भी राजा बनाने में समर्थ हैं। इनमें षोडश कलायें पूर्ण रूप से विकसित हैं। इसलिये इनका नाम मां षोडशी हैं। इनकी उपासना श्री यंत्र के रूप में की जाती है। यह अपने उपासक को भक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती है। बुध इनका अधिष्ठातृ ग्रह है।
7-धूमावती:
धूमावती का कोई स्वामी नहीं है। इसकी उपासना से विपत्ति नाश, रोग निवारण व युद्ध में विजय प्राप्त होती है।
8-त्रिपुर भैरवी:
आगम ग्रंथों के अनुसार त्रिपुर भैरवी एकाक्षर रूप है। शत्रु संहार एवं तीव्र तंत्र बाधा निवारण के लिये भगवती त्रिपुर भैरवी महाविद्या साधना बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। इससे साधक के सौंदर्य में निखार आ जाता है। इस का रंग लाल है और यह लाल रंग के वस्त्र पहनती हैं। गले में मुंडमाला है तथा कमलासन पर विराजमान है। त्रिपुर भैरवी का मुख्य लाभ बहुत कठोर साधना से मिलता है।
9-तारा:
सर्वदा मोक्ष देने वाली और तारने वाली को तारा का नाम दिया गया है। सबसे पहले महर्षि वशिष्ठ ने मां तारा की पूजा की थी। आर्थिक उन्नति और बाधाओं के निवारण हेतु मां तारा महाविद्या का महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी सिद्धि से साधक की आय के नित्य नये साधन बनते हैं। जीवन ऐश्वर्यशाली बनता है। इनकी पूजा गुरुवार से आरंभ करनी चाहिये। इससे शत्रुनाश, वाणी दोष निवारण और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
10-कमला:
मां कमला कमल के आसन पर विराजमान रहती है। श्वेत रंग के चार हाथी अपनी संूडों में जल भरे कलश लेकर इन्हें स्नान कराते हैं। शक्ति के इस विशिष्ट रूप की साधना से दरिद्रता का नाश होता है और आय के स्रोत बढ़ते हैं। जीवन ‘सुखमय होता है। यह दुर्गा का सर्व सौभाग्य रूप है। जहां कमला है वहां विष्णु है। शुक्र इनका अधिष्ठातृ ग्रह है।