कोजागरी लक्ष्मी पूजा, इस दिन अमृत बरसाता है चंद्रमा!
कोजागरी लक्ष्मी पूजा के संबंध में बताने से पहले हम आपकों यह बता दें कि कोजागरी शब्द का अर्थ क्या है- इस कोजागरी में ‘‘को’’ का अर्थ है रात्रि, वहीं ‘‘जागरी’’ का अर्थ जागरण से हैं। जिसका मतलब इस रात्रि को जाग कर रात भर जागरण करना हैं। वहीं कोजागरी को बंगाली शब्दों से उल्लेख करें तो ‘‘की, जागे, आछे’’, मतलब ‘‘कौन जाग रहा है’’? ऐसी मान्यता है कि कोजागरी पूर्णिमा की रात साक्षात माँ लक्ष्मी धरती पर आती हैं और जो लोग रात को माँ का ध्यान करते हुए जागते हैं उन लोगों के घरों में जाकर माँ लक्ष्मी वास करती हैं। दुसरे शब्दों में बता दें कि प्रतिवर्ष आश्विन मास की पूर्णिमा की रात्रि को माता लक्ष्मी के आगमन के उपलक्ष्य पर इस कोजागरी पूजा का अनूष्ठान किया जाता हैं। इस आश्विन मास में ही इसका पर्व होने का विशेष महत्व है। क्यों कि यह आश्विन मास का नामकरण अश्विनी कुमारों के नाम से होने के कारण आयुर्वेदिक चिकित्सक तमाम बीमारियों की दवा इस रात रखी गर्इं खीर के साथ रोगियों को दे कर उपचार करते हैं।
हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा भी कहते हैं। ज्योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। हिन्दू धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। बंगाल में इसे लक्खी पूजा कहा जाता है। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है कि इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है। इस पर्व को ‘‘कोजागरी पूर्णिमा’’ के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि हर मास की पूर्णिमा तिथि को चंद्रमा अमृत की वर्षा करता है, लेकिन शरद पूर्णिमा पर तो वह खुले मन से अमृत लुटाता है। पौराणिक कथा है कि इस दिन चंद्रमा को पत्नी तारा से पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी। इस दिन चंद्रमा जो कि औषधीश और औषधिपति भी कहा जाता है। चंद्रमा की किरणोंं को रजत-ज्यौत्स्ना कहने के पिछे चंद्रमा पर उपलब्ध एल्युमिनियम, कैल्शियम, लोहा, मैग्नीशियम तथा टाइटेनियम में कई सारे गुण विद्यमान है, जो चांदी में उपलब्ध होते हैं। चंद्रमा की किरणों से मुनष्य ही नहीं, हर प्रकार की फसल, पेड़-पौधों, पुष्प-लताओं में रस-रसायन बनता है। वैसे तो चंद्रमा १६ कलाओं का अधिष्ठाता माना जाता है, इसलिए भगवान शंकर चंद्रमा को अपने शीश पर धारण करते हैं।
बता दें कि चातुर्मास में नारायण की योगनिद्रा की स्थिति में इस दिन माता लक्ष्मी धरती पर वरदान एवं निर्भयता का भाव लेकर विचरण करती है। जो जागता है और नारायण विष्णु सहित उनका पूजन-अर्चन करता है, वे उसे आशीष देती है।
नारद पुराण के अनुसार, आश्विन मास की पूर्णमा को प्रात: स्नान कर उपवास रखना चाहिए। इस दिन तांबे या सोने से बनी लक्ष्मी प्रतिमा को कपड़े से ढंक कर विभिन्न द्वारा देवी लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद रात्रि को चंद्र उदय होने पर घी के सौ दीपक जलाने चाहिए। घी से बनी हुई खीर को बर्तन में रखकर चांदनी रात में रख देना चाहिए। जब एक प्रहर(३ घंटे) बीत जाएं, तब लक्ष्मी जी को सारी खीर अर्पित करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्णक सात्विक ब्राह्मणों को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएं और उनके साथ ही मांगलिक गीत गाकर तथा मंगलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनंतर अरूणोदय काल मे स्नान करके लक्ष्मी जी कि वह स्वर्णमयी प्रतिमा आचार्य को अर्पिक करें। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय दिए संसार में विचरती है और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूंगी। इस प्रकार प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुर्इं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।
व्रत की कथा- इस कोजागरी व्रत में दो कथा बहुप्रचलित हैं-
प्रथम कथा- एक साहूकार की दो पुत्रियां थी। दोनों पुत्रियां पूर्णिमा का व्रत रखती थी, परन्तु बड़ी पुत्री विधिपूर्वक पूरा व्रत करती थी जबकि छोटी पुत्री अधूरा व्रत ही किया करती थी। परिणामस्वरूप साहूकार की छोटी पुत्री की संतान पैदा होते ही मर जाती थी। उसने पंडितों से अपने संतानों के मरने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि पहले समय में तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत किया करती थी, जिस कारणवश तुम्हारी सभी संतानें पैदा होते ही मर जाती है। फिर छोटी पुत्री ने पंडितों से इसका उपाय पूछा तो उन्होंने बताया कि यदि तुम विधिपूर्वक पूर्णिमा का व्रत करोगी, तब तुम्हारे संतान जीवित रह सकते हैं। साहूकार की छोटी कन्या ने उन पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का व्रत विधिपूर्वक संपन्न किया। फलस्वरूप उसे पुत्र की प्राप्ति हुई परन्तु वह शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब छोटी पुत्री ने उस लड़के को पीढ़ा पर लिटाकर ऊपर से कपड़ा ढंक दिया। फिर अपनी बड़ी बहन को बुलाकर ले आई और उसे विराजने के लिए वही पीढ़ा दे दिया। बड़ी बहन जब पीढ़े पर विराजने लगी तो उसका घाघरा उस मृत बच्चे को छू गया, बच्चा घाघरा छूते ही रोने लगा। बड़ी बहन बोली- तुम तो मुझे कलंक लगाना चाहती थी। मेरे विराजने से तो बच्चा मर जाता। तब छोटी बहन बोली- बहन तुम नहीं जानती, यह तो पहले से ही मरा हुआ था, तुम्हारे भाग्य से ही फिर से जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। इस घटना के उपरान्त ही नगर में उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढिंढोरा पिटवाया।
दूसरी कथा- कई वर्ष पूर्व एक राजा था उसे मूर्तिकारों और शिल्पकारों के प्रति काफी उदारता थी। उनसे ऐलान किया कि किसी भी मूर्तिकार को बाजार में मूर्ति बेचने की जरूरत नहीं है, वो उनसे खुद खरीद लेंगे। रोज कोई ना कोई शिल्पकार अपनी मूर्ति राजा को देता था। एक दिन एक शिल्पकार गरीबी की देवी ‘‘अलक्ष्मी’’ की प्रतिमा दे गया। राजा ने उसे पूजा कक्ष में रख दिया। उस रात राजा को रोने की आवाज सुनाई दी। राजा ने पूजा कक्ष जा कर देखा कि माँ लक्ष्मी रो रहीं थी। राजा ने कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं अब मैं यहां नहीं रह सकती, क्योंकि आपने गरीबी की देवी को भी स्थापित कर दिया है। ऐसे में या तो गरीबी रहेगी या धन रहेगा। ये सुनकर राजा ने ‘‘अलक्ष्मी’’ की प्रतिमा को बाहर फेंकने का फैसला किया, लेकिन फिर सोचा कि ये तो शिल्पकार की कला का निरादर होगा। इसलिये उस प्रतिमा को दूसरी जगह रख दिया। राजा के ऐसा करने पर लक्ष्मी देवी समेत कई देवी-देवता नराज होकर चले गए। राज्य में गरीबी आ गई। सब खत्म होने लगा। अंत मे धर्म देव भी जाने लगे तो राजा ने उनसे गुहार लगाई और कहा कि अगर उन्होंने मूर्ति बाहर फेंक दी तो ये शिल्पकार का अपमान होगा। ये सुनकर धर्मराज का दिल पसीजा और उन्होंने कहा कि रानी को कहें कि वो कोजागरी लक्ष्मी की पूजा और व्रत करें। रानी ने वैसा ही किया। रानी पूरी रात नहीं सोई और राम भर माँ लक्ष्मी का जाप किया। खुश होकर ‘‘अलक्ष्मी’’ की प्रतिमा खुद ही पिघल गई और सभी देवी-देवता संग माँ लक्ष्मी वापस पहुंच गयी। ना तो शिल्पकार का अपमान हुआ और ना ही कोई नाराज। जब अन्य लोगों को ये बात पता चली तो सबने कोजागरी का व्रत और पूजा की। जिसके बाद सभी को शुभ फल की प्राप्ति हुई।