कौन है राहू?, कुंडली में राहू की दशा का प्रभाव और फल?
छाया ग्रह राहू और केतू कुंडली में जिस ग्रह के साथ होते हैं या तो उसके प्रभाव को दूषित कर देते हैं या उनके समान व्यवहार करने लगते हैं। एक ओर जहां राहू और केतू के कारण कालसर्प दोष बनता है, वहीं दूसरी तरफ अलग-अलग भावों में विभिन्न ग्रहों के साथ राहू की मौजूदगी उस भाव से मिलने वाले फल को प्रभावित करता है।
सर्वप्रथम यह जान लें कि राहू क्या है। कौन है राहू?। समुद्र मंथन की मिथकीय कथा के साथ राहू और केतू का संबंध जुड़ा हुआ है। देवताओं और राक्षसों की लड़ाई का दौर चल ही रहा था कि यह तय किया गया कि शक्ति को बढ़ाने के लिए समुद्र का मंथन किया जाए। अब समुद्र का मंथन करने के लिए कुछ आवश्यक साधनों की जरूरत थी, मसलन एक पर्वत जो कि मंथन करे, सुमेरू पर्वत को यह जिम्मेदारी दी गई, शेषनाग रस्सी के रूप में मंथन कार्य से जुड़े, सुमेरू पर्वत जिस आधार पर खड़ा था, वह आधार कुर्म देव यानी कछुए का था और मंथन शुरू हो गया।
इस मंथन में कई चमत्कारी चीजें निकली, लेकिन इससे पहले निकला हलाहल विष। इसका प्रभाव इतना अधिक था कि न तो देवता इसे धारण करने की क्षमता रखते थे और न राक्षस, तो शिव ने इस हलाहल को अपने कंठ में धारण किया। इसके बाद लक्ष्मी, कुबेर और अन्य दुर्लभ वस्तुओं के बाद आखिर में निकला अमृत। वास्तव में पूरा मंथन अमृत की खोज के लिए ही था, ताकि देवता अथवा राक्षस जिसके भी हिस्से अमृत आ जाए, वह उसे पीकर अमर हो जाए, लेकिन अमृत निकलने के साथ ही मोहिनी रूप में खुद विष्णु आ खड़े हुए और अपने रूप जाल से राक्षसों को बरगला कर अमृत का कुंभ चुरा लिया।
इस प्रकार राक्षस अमृत से विहीन हो गए। बाद मे जब विष्णु सभी देवताओं को अमृत देकर अमर बना रहे थे, उसी समय स्वरभानु नाम का राक्षस चुपके से देवताओं की पंक्ति में आकर बैठ गया। स्वरभानु के पास खुद को छिपा लेने की शक्ति थी और दूसरे रूप धरने की भी। विष्णु ने कतार में बैठे स्वरभानु के मुख में अमृत की बूंद गिराई ही थी कि सभा में मौजूद सूर्य और चंद्रमा ने स्वरभानु को पहचान लिया और विष्णु से इसकी शिकायत कर दी। जैसे ही विष्णु को पजा चला कि एक राक्षस धोखे से अमृत का पान कर रहा है, उन्होंने सुदर्शन चक्र लेकर स्वरभानु का सिर धड़ से अलग कर दिया, लेकिन तब तक अमृत अपना काम कर चुका था। अब स्वरभानु दो भागों में जीवित था। सिर भाग को राहू कहा गया और पूंछ भाग को केतू।
सूर्य और चंद्रमा द्वारा शिकायत किए जाने से नाराज राहू और केतू बहुत कुपित हुए और कालांतर में राहू ने सूर्य को ग्रस लिया और केतू ने चंद्रमा को।
खगोलीय विज्ञान में राहु-
राहू और केतू आकाशीय पिण्ड नहीं है, वरन राहू चन्द्रमा और कांतिवृत का उत्तरी कटाव बिन्दु है। उसे नार्थ नोड के नाम से जाना जाता है। वैसे तो प्रत्येक ग्रह का प्रकाश को प्राप्त करने वाला हिस्सा राहू का क्षेत्र है, और उस ग्रह पर आते हुये प्रकाश के दूसरी तरफ दिखाई देने वाली छाया केतू का क्षेत्र कहलाता है। यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु के साथ राहू-केतू आन्तरिक रूप से जुड़े हुये है। कारण जो दिखाई देता है, वह राहू है और जो अन्धेरे में है वह केतू है।
भारतीय ज्योतिष शास्त्रों में राहू और केतू को अन्य ग्रहों के समान महत्व दिया गया है, पाराशर ने राहु को तमों अर्थात अंधकार युक्त ग्रह कहा है, उनके अनुसार धूम्र वर्णी जैसा नीलवर्णी राहु वनचर भयंकर वात प्रकृति प्रधान तथा बुद्धिमान होता है, नीलकंठ ने राहू का स्वरूप शनि जैसा निरूपित किया है।
सामन्यत: राहू और केतू को राशियों पर आधिपत्य प्रदान नहीं किया गया है, हां उनके लिये नक्षत्र अवश्य निर्धारित हैं। तथापि कुछ आचार्यों ने जैसे नारायण भट्ट ने कन्या राशि को राहू के अधीन माना है, उनके अनुसार राहू मिथुन राशि में उच्च तथा धनु राशि में नीच होता है।
राहू के नक्षत्र-
हमारे विचार से राहु का वर्ण नीलमेघ के समान है, यह सूर्य से १९००० योजन से नीचे की ओर स्थित है, तथा सूर्य के चारों ओर नक्षत्र की भांति घूमता रहता है। शरीर में इसे पिट और पिण्डलियों में स्थान मिला है, जब जातक के विपरित कर्म बन जाते है, तो उसे शुद्ध करने के लिये अनिद्रा, पेट के रोग, मस्तिष्क के रोग, पागलपन आदि भयंकर रोग देता है, जिस प्रकार अपने निन्दनीय कर्मों से दूसरों को पीड़ा पहुंचाई थी उसी प्रकार भयंकर कष्ट देता है, और पागल तक बना देता है, यदि जातक के कर्म शुभ हों तो ऐसे कर्मों के भुगतान कराने के लिये अतुलित धन संपत्ति देता है, इसलिये इन कर्मों के भुगतान स्वरूप उपजी विपत्ति से बचने के लिये जातक को राहू की शरण में जाना चाहिये, तथा पूजा-पाठ जप दान आदि से प्रसन्न करना चाहिये। गोमेद इसकी मणि है, तथा पूर्णिमा इसका दिन है। अभ्रक इसकी धातु है।
द्वादश भावों में राहू-
प्रथम भाव में – शत्रुनाशक़, अल्प संतति, मस्तिष्क रोगी, स्वार्थी सेवक प्रवृत्ति का बनाता है।
दूसरे भाव में – कुटुम्ब नाशक, अल्प संतति, मिथ्या भाषी, कृपण और शत्रु हन्ता बनाता है।
तीसरे भाव में – विवेकी, बलिष्ठ विद्वान और व्यवसायी बनाता है।
चौथे भाव में – स्वभाव से क्रूर, कम बोलने वाला, असंतोषी और माता को कष्ट देने वाला होता है।
पंचम भाव में – भाग्यवान, कर्मठ, कुलनाशक और जीवन साथी को सदा कष्ट देने वाला होता है।
छठे भाव में – बलवान, धैर्यवान, दीर्घवान, अनिष्टकारक और शत्रुहन्ता बनाता है।
सप्तम भाव में – चतुर, लोभी, वातरोगी, दुष्कर्म, प्रवृत्त, एकाधिक विवाह और बेशर्म बनाता है।
आठवें भाव में – कठोर परिश्रमी, बुद्धिमान, कामी और गुप्त रोगी बनाता है।
नवें भाव में – सदगुणी, परिश्रमी लेकिन भाग्य में अंधकार देने वाला होता है।
दसवें भाव में – व्यसनी, शौकीन, सुन्दरियों पर आसक्त और नीच कर्म करने वाला होता है।
ग्यारहवें भाव में – मंदमति, लाभहीन, परिश्रम करने वाला, अनिष्ट्कारक और सतर्क रखने वाला बनाता है।
बारहवें भाव में – मंदमति, विवेकहीन और दुर्जनों की संगति करवाने वाला बनाता है।
राहू की दशा १८ साल की होती है-
राहू की दशा का समय १८ साल का होता है, राहू की चाल बिलकुल नियमित है। तीन कला और ग्यारह विकला, रोजाना की चाल के हिसाब से वह अपने नियत समय पर अपनी ओर से जातक को अच्छा या बुरा फल देता है, राहु की चाल से प्रत्येक १९ वीं साल में जातक के साथ अच्छा या बुरा फल मिलता चला जाता है, अगर जातक की १९वीं साल में किसी महिला या पुरूष से शारीरिक संबंध बने है, तो उसे ३८ वीं साल में भी बनाने पडेंगे, अगर जातक किसी प्रकार से १९ वीं साल में जेल या अस्पताल या अन्य बन्धन में रहा है, तो उसे ३८ वीं साल में, ५७ वीं साल में भी रहना पडेगा। राहू की गणना के साथ एक बात और आपको ध्यान में रखनी चाहिये कि जो तिथि आज है, वहीं तिथि आज के १९ वीं साल में होगी।