क्यों प्रिय है भोलेनाथ को शरीर पर लगाना भस्म, क्या विधि है इसके बनने की?
भगवान शिव सभी भक्तों के प्रिय देवता है। हमारें घर मंदिर में इनका विशेष स्थान रहता है। हमारे द्वारा मांगी गयी सच्चे मन से हर मनोकामनाएं शीघ्र पूरी हो जाती है। चाहे वो घर परिवार की हो या व्यवसाय की हो या फिर दाम्पत्य जीवन हो। सभी इच्छा को भगवान भोलेनाथ के सनमुख रखने से भगवान शिव जो कि स्वभाव से भोले है भक्तों की मांगी गई निश्चल भाव से सारी मनोकामनाएं पूरी कर देते है। लेकिन संसारिक चीजों को देने वाला दाता भगवान शिव इन सभी से दूर है। जिस वस्तु धतूरा, भांग, मदार या फिर बेल हो इन सभी से हम और हमारें परिवार को दूर रखते है और वहीं भगवान को इन सभी वस्तू प्रिय है। परन्तू इनके साथ भगवान भोलेनाथ को एक और वस्तु से बहुत लगाव है और वो वस्तू है भस्म। भगवान शिव को भस्म अति प्रिय है। जिस भस्म को हम समाप्त(अंत) का प्रतीक मानते है वहीं शिव उस भस्म को अपने पूरे शरीर पर लगाये रहते है। इसके पिछे एक कथा भी है और भगवान शिव इसके माध्यम से सभी मनुष्य को एक संदेश भी देते है कि एक दिन इस भस्म की तरह सभी को समाप्त हो जाना है। सिर्फ रह जाता है आत्मा। जो कि नश्वर होती है अजर-अमर होती है।
क्या कथा है इसके पिछे?-
मान्यता है कि भगवान शिव जो भस्म अपने शरीर पर लगाएं है वो भस्म उनकी पत्नी सती की चिता की है। जो कि अपने पिता दक्ष द्वारा भगवान शिव के अपमान से आहत हो वहां हो रहे यज्ञ में अपने योज्ञ अगनी से अपने आप को माता सती ने स्वंय को भस्म कर लिया था। भगवान शिव को जब इसका पता चला तो वे बहुत बेचैन हो गये। जलती हुई सती के शरीर को लेकर प्रलाप करते हुए ब्रह्माण्ड में घूमते रहे। उनके क्रोध व बेचैनी से सृष्टि खतरे में पड़ गई। पहले भगवान श्री हरि ने अपने सूर्दशन चक्र से देवी सती के शरीर को छिन्न-भिन्न कर दिया था। जहां-जहां उनके अंग गिरे वहीं शक्तिपीठों की स्थापना हुई। फिर भी शिव का संताप जारी रहा। तब श्री हरि ने सती के शरीर को भस्म में परिवर्तित कर दिया। शिव विरह की अग्नि में भस्म को ही अपनी पत्नी की अंतिम निशानी के तौर पर तन पर लगा दिया। उनके तन पर भस्म रमाने का एक और रहस्य यह भी है कि राख विरक्ति का प्रतीक है। भगवान शिव चूंकि बहुत ही लौकिक देव लगते हैं। वहीं कथाओं में देखा जाये तो उनका रहन-सहन एक आम सन्यासी सा लगता है। एक ऐसे ऋषि सा जो गृहस्थी का पालन करते हुए मोह माया से विरक्त रहते हैं और संदेश देते हैं कि अंत काल सब कुछ राख हो जाना है।
काल में महाकाल भगवान शिव की भस्मार्ती-
विश्वविख्यात मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में महाकाल का ज्योतिर्लिंग(महाकालेश्वर मंदिर) है। जिसका उल्लेख पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस ज्योतिर्लिंग का मनोहर वर्णन मिलता है। यहाँ स्थापित ज्योतिर्लिंग बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। ज्योतिर्लिंग का मतलब वह स्थान जहां भगवान शिव ने स्वयं लिंगम स्थापित किए थे। यहाँ पूर्व के समय में महाकाल की आरती श्मशान की भस्म से होती थी। लेकिन अब यह परंपरा खत्म हो चुकी है और अब वर्तमान में महाकाल की कपिला गाय के गोबर से बने कंडे, शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलतास और बेर की लकड़ियों को जलाकर तैयार किए गए भस्म से हर सुबह आरती शृंगार किया जाता है। दरअसल यह भस्म आरती महाकाल का शृंगार है और उन्हें जगाने की विधि है।
जलते कंडे में जड़ीबूटी और कपूर-गुगल की मात्रा इतनी डाली जाती है कि यह भस्म सेहत की दृष्टि से उपयुक्त हो जाती है। श्रौत, स्मार्त और लौकिक ऐसे तीन प्रकार की भस्म कही जाती है। श्रुति की विधि से यज्ञ किया हो वह भस्म श्रौत है, स्मृति की विधि से यज्ञ किया हो वह स्मार्त भस्म है तथा कंडे को जलाकर भस्म तैयार की हो वह लौकिक भस्म हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो कई सन्यासी तथा नागा साधु पूरे शरीर पर भस्म लगाते हैं। यह भस्म उनके शरीर की कीटाणुओं से तो रक्षा करता ही है तथा सब रोम कूपों को ढंककर ठंड और गर्मी से भी राहत दिलाती है। बता दें कि रोम कूपों के ढंक जाने से शरीर की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती इससे शीत का अहसास नहीं होता और गर्मी में शरीर की नमी बाहर नहीं होती। इससे गर्मी से रक्षा होती है। मच्छर, खटमल आदि जीव भी भस्म रमे शरीर से दूर रहते हैं।